“हमारा घर क्यों छीना?” – एक जानवर की आखिरी पुकार…
कांचा गचीबावली का जंगल अब सिर्फ़ एक ख़ामोश लाश बनकर रह गया है। 100 एकड़ से ज़्यादा हरियाली, जो कल तक जीवन की पहचान थी, आज मशीनों के पंजों तले रौंद दी गई है। वहाँ जहां कभी हर सुबह मोर नाचते थे, अब वहाँ सिर्फ धूल है। वो पेड़, जिनकी शाखों पर टंगे घोंसलों में नए जीवन की शुरुआत होती थी, आज धरती पर बिखरे पड़े हैं – टूटे हुए, कुचले हुए।
जब पेड़ कटे, तो दिल भी कटे..
जंगल सिर्फ़ लकड़ी का ढेर नहीं होता, वो एक घर होता है – नन्हीं गिलहरियों का, मासूम हिरणों का, रंग-बिरंगे पक्षियों का और सैकड़ों ऐसे जीवों का जिनका नाम हम शायद ही जानते हों। जब ये पेड़ गिरे, तो उनके साथ हजारों घोंसले भी ज़मीन पर आ गिरे। जिन डाली पर कल एक मैना अपने बच्चों को दाना खिला रही थी, आज वही डाली मशीनों के नीचे दबकर मिटी हो गई।
एक नज़ारा जो किसी को भी रुला दे..
कटाई के बाद का दृश्य – हर तरफ़ टूटी डालियाँ, उखड़े हुए पेड़, और घबराए हुए जानवर। एक नन्हा खरगोश अपनी मां को ढूंढ रहा था, जो शायद मशीन की गर्जना में कहीं खो गई। एक चील, जो हर रोज़ उस जंगल की ऊंची शाखा पर बैठती थी, आज खुली सड़क के किनारे बैठी आसमान को ताक रही थी – जैसे पूछ रही हो, “मेरा घर कहां गया?”
वो 400 प्रजातियाँ जिनकी कोई आवाज़ नहीं सुनता..
क्या आपने कभी किसी हिरण को रोते देखा है? क्या कभी किसी तोते की चीख सुनी है जब उसका अंडा उसकी आंखों के सामने टूट जाए? कांचा गचीबावली के जंगल में आज हर पत्ता, हर शाख, हर जानवर – सब चीख रहे हैं। ये आवाज़ें शायद अख़बारों में नहीं छपतीं, टीवी पर नहीं दिखतीं, लेकिन अगर आप दिल से सुनें तो ये आपके दिल को चीर सकती हैं।
इंसान कब समझेगा?
हमें समझना होगा कि जंगल सिर्फ़ लकड़ी का ढेर नहीं, बल्कि सांसें हैं। वो जानवर, वो पक्षी – सब हमारी तरह जीते हैं, हँसते हैं, रोते हैं, प्यार करते हैं। कांचा गचीबावली की ये कटाई विकास नहीं, विनाश है। और अगर अब भी हम चुप रहे, तो अगला जंगल आपके शहर के पास होगा।
हम चुप क्यों हैं?
क्यों हम सिर्फ़ सोशल मीडिया पर स्टोरी देखते हैं और आगे बढ़ जाते हैं? क्यों हम ये सोचते हैं कि कोई और बोलेगा? अगर आज हम नहीं उठे, तो कल हमारे बच्चों के हिस्से में सिर्फ़ तस्वीरें और कहानियाँ बचेंगी – असली जंगल नहीं।
आपकी एक आवाज़ – लाखों जानवरों के लिए जीवनदान…
ये लेख सिर्फ़ पढ़ने के लिए नहीं, महसूस करने के लिए है। आप चाहें तो कुछ बदल सकता है। सरकार को पत्र लिखिए, सोशल मीडिया पर जागरूकता लाइए, लोकल पर्यावरण ग्रुप्स से जुड़िए।आपकी चुप्पी अब अपराध बन चुकी है।
“हमें जीने दो…”
कांचा गचीबावली के जंगल के जीव इंसानों से कुछ नहीं चाहते – सिर्फ़ जीने का हक। वो भी इस धरती के उतने ही हिस्सेदार हैं जितने हम। वो बोल नहीं सकते, लेकिन उनका मौन अब आसमान को भी चीर सकता है।